तुम तो यहीं थी
मेरे भीतर
एक खुशबू की तरह
मुझे महकाती हुयी
और मैं पागल
ढूँढता रहा तुम्हें बाहर
कस्तूरी मृग की तरह
पर तुम चुप क्यूँ रही?
कुछ तो कहती
डांट ही देती मुझे
मेरी मूर्खता पर
या आनंद आता है
मुझे सताने मे
यही बता दो अब
क्या मेरे कष्ट
मेरे दुख देख
तुम्हें पीड़ा न हुयी
नहीं लगा तुम्हें
प्रेम की खुशबू
काफी नहीं है
सहारा चाहिए था मुझे?
नहीं लगा यदि
ऐसा कुछ तुमको
तो फिर अब मुझमे
बस कर नहीं कोई लाभ
छोड़ दो मुझे
मेरे हाल पर
ले लो अपनी खुशबू
मुझे महकने दो अब
मेरी तरह
...........
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