तुझे भूलना मुमकिन भी हो जाता लेकिन
तेरी याद दिलाने का जहां में दस्तूर बहुत है
न की कद्र तेरी जब थी जानाँ पास तू मेरे
आज जब कद्र करता हूँ तो तू दूर बहुत है
हमारा इश्क ग़र परवान चढ़ता तो क्यूँ कर
मैं मगरूर बहुत हूँ और तू मजबूर बहुत है
सैकड़ो ज़ख्म सह कर भी जी लेता है इंसान
मगर जाँ लेने को दिल पे इक नासूर बहुत है
ठुकरा दिया "विक्रम" जिसे वो फिर न मिलेगा
जहां में किस्सा ये चाहत का मशहूर बहुत है