शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

प्यार





मैं तो कलाम-ए-इश्क़ का व्यापार करता हूँ
खुद भी बीमार हूँ, सबको बीमार करता हूँ 

मुझको दे जाता है वो शख्स हमेशा ही धोखा 
फिर भी भरोसा मैं उसका बार-बार करता हूँ 

देगी तू मौत मुझे इक तो दिन थक करके  
ज़िंदगी इतना तो तुझपे एतबार करता हूँ 

मेरा जनाज़ा न उठाओ उनको ज़रा आने दो 
दो घड़ी और रुक के उनका इंतज़ार  करता हूँ 

वो पूछते हैं, "प्यार करते हो कितना हमसे "
कम ही होगा जो कहूँ बेशुमार करता हूँ 

कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर 
तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ  

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.

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  2. आपका बहुत बहुत शुक्रिया .....:)

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  3. tujhse hi nahi maa se bi pyar karta hoon...lajab panktiya..behtarin geer..sadar badhayee aaur amantran ke sath

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